Sunday, January 3, 2010

ना मंज़िल...ना आरज़ू...

अपने साए से डरता जा रहा हूं...
अब टूट कर बिखरता जा रहा हूं...

ग़मों की लौ अभी भी रौशन है...
स्याह अक्स हूं..निखरता जा रहा हूं..

कितनी लहरें कितने सैलाब आए...
डूब डूब कर उभरता जा रहा हूं....

काश..कोई नमी छू गयी होती...
बस इक आरजू करता जा रहा हूं...

खुदाया क़र्ज़ मुझपे लाज़िम है...
चंद सांसों से भरता जा रहा हूं...

अब ना साहिल...ना मंज़िल...ना आरज़ू कोई..
कुछ तो है कि चलता जा रहा हूं...

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